Sunday 12 February 2017

दारिद्र्य दर्शन

एक अध्ययन के अनुसार अपनी मातृभाषा में अभिब्यक्ति के लिए मानव मस्तिष्क में 100000 से लेकर 350000 शब्दों का विशाल भंडार होता है। हाँ, यह इस बात पर भी निर्भर करता है कि वो भाषा है कब की और कहां की। उस भाषा के विकाश यात्रा कितनी पुरानी है। उस भाषा का मूल स्रोत कहाँ निहित है। किसी भी भाषा के समृद्ध होने के मूल कारकों में सबसे महत्वपूर्ण कारक है उस भाषा की निरंतरता और उस भौगोलिक क्षेत्र की विविधताए एवं सांस्कृतिक विकासक्रम-काल।

भाषा वैज्ञानिकों के मतानुसार भषाओं को मोटे तौर पर तीन श्रेणियों में बांटा जा सकता है। जीवित, मृत और लुप्त भाषाएं।

जीवित भाषा वो सारी भाषाएं हैं जो बोलचाल और संवाद स्थापित करने के लिए उपयोग में हैं। ऐसी लगभग 19700 भाषाएं सिर्फ भारतवर्ष में ही हैं । ऐसी सारी भाषाएं जो ब्याकरण के कठोर अनुशासन से मुक्त हैं और समय और स्थान के साथ अपना स्वरूप बदलती रहती है वो जीवित भाषा की श्रेणी में आती हैं।
लुप्त भाषाएँ, जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, वो सारी ज्ञात-अज्ञात, पठित-अपठित भाषाएँ, जो विलुप्तप्राय हो चुकि है और दुनियाँ के किसी भी समूह द्वारा वर्तमान में प्रयोग नही हो रहीं है।

भारतीय भाषओं में सबसे अधिक आबादी, (लगभग 47 करोड़) द्वारा उपयुक्त खड़ीबोली जो देवनागरी लिपि में लिखी जाती है, जिसे मगही, अवधी, बुंदेलखण्डी, भोजपुरी इत्याति भाषाओं का सामूहिक प्रतिनिधित्व प्राप्त है, उसे भारतीय संबिधान में राजभाषा की प्रतिष्ठा प्राप्त है। लेकिन जैसा कि हिंदी की अपनी पूर्णतः स्थापित ब्याकरण है और हर लिखे और बोले जाने वाले वाक्य का ब्याकरण के कसौटी पर जाँच की जा सकती है, इस शर्त के कारण हिंदी राजभाषा, जो देवनागरी लिपि में लिखी जाती है और जिसका अपना पूर्णतः परिभाषित ब्याकरण है, मृत भाषा के श्रेणी में आती है। परिणामतः यह अपरिहार्य है कि हिंदी के शब्दों (कभी-कभी तत्सम शब्दों) के लिए आग्रह भी स्वमेव उपस्थित हो जाता है। ऐसे में राजभाषा के रूप में हिंदी के स्थापित होने के राह में एक मुख्य अड़चन यह आती है कि उपयुक्त शब्द ज्ञान के अभाव में हम हिंदवी (पारसी, अरबी) और ज्यादातर अवसरों पर अंग्रेजी शब्दों का सहारा लेने लगते हैं। हालांकि, हिंदी शब्द कोष, संस्कृत सूत्र के कारण दुनियाँ की सबसे समृद्ध शब्द कोष है।

लेकिन सबसे त्रासदपूर्ण स्थिति तब उत्पन्न होती है जब हम अपने शब्द-दारिद्र्य को छुपाने के लिए एक ऐसी भाषा का सहारा लेते हैं जिसमे हमारी बहुसंख्यक आबादी लगभग अपढ़ है। जी हाँ, हम एक ऐसी भाषा का चादर ओढ़ लेते हैं जो मूल रूप से अपरिभाषित और दरिद्र है। वो भाषा है अंग्रेजी, जिसके पास अपना शब्दकोश इतना छोटा है कि इसका वाक्य-विन्यास बिना सहायक और पूरक शब्दों के संभव ही नही हो सकता।
तमाम शोधों से यह साबित हो चुका है कि किसी को अपने मातृभाषा के अतिरिक्त किसी अन्य भाषा में  बोलने के लिए उसके पास मात्र 800 से 1000 शब्द ही होते है जिन्हें वह तोड़ मरोड़ कर अपनी बात कहता है। दूसरी भाषा में लिखने वाले ज्यादातर लोग अधिकतम 5000 शब्दों का ज्ञान रखते हैं। कुछ मामलों में 300 से 500 अतिरिक्त शब्द भंडार उस ब्यक्ति के पास तब होता है जब वह इंसान किसी खास क्षेत्र में अध्यन किया हो। उदाहरण के लिए , एक चिकित्सक या रसायनशास्त्री या अर्थशास्त्री अपने अध्ययन क्षेत्र के कुछ अतिरिक्त शब्दों का धनी हो सकता है।

अन्य भाषा में बोलने और लिखने के प्रति उसके प्रयास के पीछे अपने अतिरिक्त ज्ञान का बखान करने और दूसरे को नीचा दिखाने की हिंसक प्रवृति काम करती है। हर समाज में एक ऐसा वर्ग होता है जो इस मानसिक विकृति का शिकार होता है, जो अपने आपको प्रबुद्ध और अभिजात्य वर्ग का समझता है। जैसे ब्रिटेन का अभिजात्य वर्ग फ्रेंच भाषा में बोलना अपनी शान समझता है वैसे ही हिंदुस्तान में टूटी फूटी अंग्रेजी में लिखने और बोलने का प्रयास करता हुआ एक बड़ा वर्ग मिल जाएगा। ऐसा ब्यक्ति अपनी अभिब्यक्ति क्षमता की विफलता पर शर्मिंदा होने से बचने के लिए हमेशा कुछ क्लिष्ट शब्दों के तलाश में रहता है।
हाल ही में एक नई प्रवृति देखने को मिली है जब नए शब्दों के सृजन और प्रयोग प्रचलन में आया है। किंतु इनमे ज्यादातर शब्द या तो प्रतिक्रियात्मक, भड़काऊ और अपमानजनक पाये गए हैं। ये शब्द भी मूल शब्द नहीं होते और मात्र शब्द-संग्रह होते हैं जो भाषायिक-शब्द परिभाषा के परिधि में नहीं आते।
राजभाषा दिवस के इस राष्ट्रीय पर्व पर हमारी तरफ से उन सभी राष्ट्रवादियों को शुभकामनाएं जो राजभाषा को राष्ट्र निर्माण का सूत्र मानते हैं।

राजेश कुमार श्रीवास्तव
मुख्य प्रबंधक

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